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विमर्श

नागार्जुन के उपन्यासों में सामाजिक यथार्थ

डॉ. इनु कुमारी


हिंदी साहित्य के प्रगतिशील उपन्यासकारों में नागार्जुन का महत्व सर्वोपरि है, उन्होंने जनता के संघर्ष को अपनी माटी से जोड़ने की कोशिश की और सामान्य लोगों के दु:ख-दर्दों की प्रभावशाली भाषा में अभिव्यक्ति की। उनकी दलितों के प्रति पक्षधरता, नारी के प्रति सम्मान, यथार्थ का अंकन, अभिव्यक्ति की सहजता तथा वस्तुपरक दृष्टि सहज ही उन्हें अन्य उपन्यासकारों से अलग खड़ा कर देती है। नागार्जुन ने अपने उपन्यासों में जिस समाज का चित्रण किया है वह उनका अपना है और उसी समाज में रहते हुए उन्होंने उसके दु:ख-दर्द को झेला और भोगा है। विभिन्न वर्गों की समस्याओं के प्रति उनकी विस्तृत जानकारी है। गरीब चरवाहे से लेकर मंत्री तक का वर्णन उन्होंने अपने उपन्यास साहित्य में किया है। दीन-हीन शोषित जनता की यथार्थपरक झाँकी इन उपन्यासों में देखी जा सकती है। जीवन से घनिष्ठ संबंध ने नागार्जुन को यथार्थ दृष्टि प्रदान की और इसी कारण उन्होंने अपने उपन्यासों में तत्कालीन जीवन की यथार्थ अभिव्यक्ति की है। अनमेल-विवाह, विधवा-विवाह, जमींदारों का अत्याचार, कर्ज के बोझ में पिसते किसान-मजदूर और अपने अधिकारों के लिए लड़ने को तत्पर निम्नवर्गीय लोग आदि नागार्जुन के उपन्यास के प्रमुख विषय है। उनके सभी उपन्यास तत्कालीन परिस्थितियों की उपज है। नागार्जुन ने निम्न-मध्यवर्गीय परिवार में जन्म लिया था, इसलिए उन्होंने अपने संघर्षशील जीवन में निम्न-मध्यवर्गीय परिवारों के दु:ख-दर्द, पीड़ाओं, अपमान और तिरस्कारों को सहन भी किया है। यही कारण है कि नागार्जुन समाज के सभी शोषित-पीड़ित, गरीब किसान, मजदूर आदि सर्वहारा वर्ग के साथ पूरी सहानुभूति रखते हैं और इसीलिए वे अपने समाज की वास्तविकता को सर्वहारा वर्ग के दृष्टिकोण से देखते हैं। नागार्जुन ने अपने सभी उपन्यासों में सामाजिक यथार्थ का चित्रण किया है। अपने समय के सामाजिक संघर्ष को उन्होंने अपने उपन्यास में चित्रित किया है। यह सामाजिक संघर्ष यथार्थ से अधिक निकट है।

बीसवीं सदी के उपन्यासकारों में नागार्जुन एक युग का प्रतिनिधित्व करते हैं इस युग की पहचान है नागार्जुन के उपन्यासों का सामाजिक यथार्थवाद। उन्होंने अपने हृदय की अभिव्यक्ति इतनी सरलता से की है कि वह जनमानस के यथार्थ को छूकर उथल-पुथल मचा देती है। उन्होंने अंचलीय निवासियों के रहन-सहन का स्तर, खान-पान का ढंग, उनकी मान्यताएँ और प्रथाएँ, पूजा पद्धति, धार्मिक आस्था, बोलचाल का तरीका का वर्णन अपने उपन्यासों में किया है। समाज में होने वाले परिवर्तनों का साहित्य पर प्रभाव पड़ता है किंतु साहित्य भी समाज में परिवर्तन लाने की क्षमता रखता है यह नागार्जुन ने अपने उपन्यास के माध्यम से सिद्ध किया है। समाज के संघर्ष को उन्होंने अपने उपन्यासों में चित्रित किया है। आज जनता के लिए संघर्षरत नागार्जुन को संघर्ष में थोड़ी भी मौकापरस्ती बर्दाश्त नहीं होती। 'किसानों-मजदूरों पर अत्याचार, नागरिकों छात्रों पर प्रहार, देश विदेश की कोई घटना, जिससे शांति, प्रगति के लिए संघर्षरत मानव समाज आहत हो उससे बाबूजी की मानसिक बेचैनी और उद्विग्नता बढ़ जाती है। जब तक उस घटना पर अपना आक्रोश व्यक्त नहीं करते तब तक उनमें छटपटाहट बनी रहती है।'1 नागार्जुन ने 'बलचनमा' उपन्यास में शोषकों के विरुद्ध आक्रोश को दर्शाया है। उनकी सहानुभूति सर्वहारा वर्ग के प्रति है। पूंजीपतियों और जमींदारों के प्रति उनका विद्रोह उनके उपन्यासों में दृष्टिगत होता है। नागार्जुन के संदर्भ में डॉ. नामवर सिंह का यह कथन है कि ''समाजवाद का स्वप्न देखने वाले नागार्जुन इस दौर में जनवाद की रक्षा के लिए बराबर खड्गहस्त रहे हैं।''2

हिंदी साहित्य में नागार्जुन ऐसे रचनाकार हैं जिनका देश की समसामयिक राजनीति से गहरा संबंध रहा है। उन्होंने कई जन-आंदोलनों में भी भाग लिया था। यही कारण है कि नागार्जुन के उपन्यासों में राष्ट्रीय स्वाधीनता-आंदोलनों की यथार्थ अभिव्यक्ति मिलती है। उनके बहुचर्चित उपन्यास 'बाबा बटेसरनाथ' में देश की समसामयिक राजनीतिक परिस्थितियों का यथार्थ चित्रण किया गया है। बाबा बटेसरनाथ, जैकिसुन को बीते हुए असहयोग आंदोलन की कथा सुनाते हैं कि ''असहयोग का वह जमाना अद्भुत था। देश का हर हिस्सा नई चेतना से स्पंदित होकर अँगड़ाइयाँ ले रहा था। आसाम-बंगाल रेलवे में हड़ताल हुई। मिदनापुर के किसानों ने लगानबंदी का आंदोलन छेड़ दिया। दक्षिण मालाबार के मोपलों ने बगावत कर दी। पंजाब में सरकार के पिट्ठू महंतों के खिलाफ अकाली सिखों की घृणा भड़क उठी।''3 नागार्जुन के उपन्यास 'बलचनमा' में सन् 1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन का चित्रण हुआ है, जिसमें नमक कानून तोड़ना एक व्यावहारिक कार्यक्रम से जुड़ा हुआ था। इतना ही नहीं नागार्जुन ने ग्राम्य-विकास, बेरोजगारी, अन्याय, अत्याचार, अधिकारों की लड़ाई आदि अनेकों ज्वलंत समस्याओं को अपने उपन्यासों का उपजीव्य बनाया है। समसामयिक राजनीतिक यथार्थ के प्रति उनका दृष्टिकोण प्रगतिशील और जनवादी है।

नागार्जुन ने अपने उपन्यास-साहित्य में गाँव के निम्नवर्गीय पात्रों को स्थान दिया है। शोषण करने वाली ताकतों का यथार्थ चित्रण उन्होंने इस प्रकार से किया है कि वह पाठकों के हृदय को छू लेती है। उन्होंने आम जनता के जीवन को स्वयं भोगा है इसीलिए उनकी अभिव्यक्ति में किसान और उसका धरती से मोह, जमींदारों की तानाशाही, उनका अन्याय, शोषण की प्रवृति और उसके लिए अपनाए जाने वाले विभिन्न तरीके, घृणित व्यवहार आदि मुखरित हुए हैं। जमींदारों के घर पर जो नौकर होता था उसे वे जानवरों से भी बदतर निगाहों से देखते थे। घर का जो भी गंदा, खराब और बेकार खाना होता था, उसे वह नौकरों को दे देते थे। अपनी मलिकाइन से मिले हुए जूठा बेकार खाना के बारे में बलचनमा बताता है कि ''जब वह बहुत खुश होती तो सूखा या बासी पकवान, सड़ा आम, फटे दूध का बदबूदार छैना या जूठन की बची हुई कड़वी तरकारी देती हुई मुझे कहती, बलचनमा ऐसी अच्छी चीज तेरे बाप दादे ने भी नहीं खाई होंगी।''4 नागार्जुन अन्यायी व्यवस्था के सशक्त विरोधी थे। उनके द्वारा रचित उपन्यास साहित्य में आए पात्र सहज और स्वाभाविक हैं। '' 'बलचनमा' में एक ऐसे पात्र को नागार्जुन ने नायक बनाया है जो उपेक्षित तो है लेकिन लाचार नहीं। 'बाबा बटेसरनाथ' उपन्यास में वटवृक्ष का मानवीकरण कर उसे नायक की संज्ञा प्रदान की है। इसी तरह 'वरुण के बेटे' के मोहन माँझी, भोला, मंगल, मधुरी आदि ऐसे ही उपेक्षित और निम्नवर्ग के पात्र है। 'दु:खमोचन' तो सचमुच का दु:ख-मोचन है। वह निरंतर दूसरों की भलाई में लगा रहता है। वह नवनिर्माण का प्रतीक हैं।''5

नागार्जुन के सभी उपन्यास समसामयिक संदर्भ में लिखे गए हैं। इन उपन्यासों के कथानक की पृष्ठभूमि बिहार का मिथिलांचल क्षेत्र रहा है। समसामयिकता की दृष्टि से उन्होंने देश के अंचल की लोक-संस्कृति को अभिव्यक्त किया और जनजीवन की परंपराओं, रीति-रिवाजों, व्रत-त्योहारों, लोक मान्यताओं की अभिव्यक्ति को अपने उपन्यासों का उद्देश्य बनाया। परंपरागत प्रथाओं में मिथिला के ग्रामीण लोगों को अभी भी आस्था और विश्वास है। 'रतिनाथ की चाची' उपन्यास में मिथिला जनपद की 'बिकौआ' प्रथा का उल्लेख है। 'बलचनमा' उपन्यास में 'खवास' प्रथा का उल्लेख भी किया गया है। जिसमें जमींदार द्वारा किसी व्यक्ति को खरीद लिया जाता है फिर यह परंपरा पुश्त-दर-पुश्त चलती रहती है। मैथिल ब्राह्मणों में 'पंजी' प्रथा का प्रचलन है, जिसमें पंजीकार लड़का-लड़की दोनों के मातृकुल तथा पितृकुल का लेखा-जोखा रहता है। मिथिला जनपद के अंधविश्वास, मंत्र-तंत्र, भूत-प्रेत तथा अपशकुनों का भी नागार्जुन ने अपने उपन्यासों में उल्लेख किया है। नागार्जुन ने मिथिलांचल के मठों में पाखंड और भ्रष्टाचार को भी उद्घाटित किया है। उनके उपन्यासों की प्रवृत्ति का प्रेरक तत्व भारतीय अंचलों में निवास करने वाले सामयिक जन-जीवन की विविधता है।

नागार्जुन ने अपने उपन्यासों की रचना आँचलिक परिवेश में की है। अपने अंचल का इन उपन्यासों में उन्होंने यथार्थ चित्रण किया है। अंचल की लोक-भाषा, लोक-भूषा, लोक-संस्कृति और लोक-गाथा से उनका लगाव उनके उपन्यासों में स्पष्ट रूप से दृष्टिगत होता है। उनके प्रमुख उपन्यास बाबा बटेसरनाथ, बलचनमा, रतिनाथ की चाची, वरुण के बेटे आदि की रचना आँचलिक पृष्ठभूमि पर हुई है। ''लोक संस्कृति का रूपायन नागार्जुन ने विशेष रुचि और प्रीति से किया है, उन्होंने आँचलिक समाज और जीवन विधि का यथार्थ दर्शन कराया है। साथ ही सांस्कृतिक दशा से भी हमें परिचित कराया है।''6 तत्कालीन भौगोलिक परिवेश में अकाल, महामारी, बाढ़ आदि का अत्यधिक प्रकोप रहा। ग्रामीण अंचल में मची तबाही का चित्रण 'बाबा बटेसरनाथ' में नागार्जुन ने बड़ी आत्मीयता से किया है। बाबा बटेसरनाथ कहते हैं, ''धमिया पट्टी के नजदीक मुसहरों की एक बस्ती थी। बाढ़ का प्रकोप बढ़ा तो वह कमर भर पानी के अंदर आ गई। औरत मर्द सब सामान और बाल-बच्चों को लिए दिए भाग आए। मचान बाँधकर वे मेरे डालों पर रहने लगे। बड़ी मुसीबत थी। बेचारों के लिए। रोज मजदूरी करें, रोज खाएँ लेकिन उन दिनों तो सारे काम बंद पड़े थे। जमीन पानी के अंदर थी तो वहाँ भला क्या होता, दस पाँच रोज किसी तरह उनका काम चला, फिर फाके पड़ने लगे।''7

नागार्जुन ने अपने उपन्यासों में कृषक, मजदूर तथा समस्त श्रमजीवी वर्ग की समस्याओं को यथार्थ अभिव्यक्ति, दी है। इन समस्याओं में सबसे अहम समस्या आर्थिक विपन्नता है। किसी भी व्यक्ति के जीवन में अर्थ की महत्ता प्रमुख है। अर्थ की समस्या ही अन्य समस्याओं की जननी है। नागार्जुन के उपन्यासों में उनके पात्रों के आचार-विचार तथा व्यवहार से आर्थिक विपन्नता को आँका जा सकता है। उनके प्रसिद्ध उपन्यास 'बलचनमा' का प्रमुख पात्र बलचनमा निम्नवर्ग का कृषक मजदूर है। उसकी विपन्नता उसके खान-पान, पहनावा तथा रहन-सहन में प्रकट होती है। बलचनमा की आर्थिक स्थिति इतनी बदतर थी कि उसके बाप के मरने के बाद उसके घर में दो वक्त खाने को अन्न भी नहीं था। बलचनमा के ही शब्दों में ''बापू जब मरा तो दादी को चौथइया बुखार लग रहा था कुछ मालिक से लेकर कुछ इधर-उधर से जैसे-तैसे किरिया करम हुआ और मेरे गले की उतरी टूटी। उसके बाद दादी और माँ की राय हुई कि मैं मालिकों की किसी पट्टी में चरवाहे का काम करूँ।''8 'बाबा बटेसरनाथ' उपन्यास में आर्थिक विपन्नता को यथार्थता के जो चित्र उपस्थित हुए हैं उसमें प्रकृति की मार ने साधारण जनों की विपन्नता को और अधिक कष्टकर बना दिया था। प्राकृतिक प्रकोप के कारण जब लोगों को अन्न जल नसीब न हुआ तो जीव जंतुओं पर टूट पड़े और जब वे भी न मिले तो लोगों ने ईंट, घास, पत्तियाँ आदि को खाना शुरू किया। ''ईंट का वजन उन दिनों कम से कम तीन सेर होता था। जो ईंट हल्की आँच पर पकी होती लोग उन्हें ही उठाते। घर में औरतें ईंटों का चूरन बनाती पहले, पीछे उस चूरन का महीन पिसान तैयार कर लेती। आम-जामुन, अमरूद, इमली वगैरह की पत्तियाँ उबालकर पीस ली जाती। पाँच जने अगर खाने वाले हुआ करते तो एक ईंट का एक सेर पिसान दो सेर उबली पत्तियों में मिलाया जाता, कहीं यह पिसान पत्तियों में एक चौथाई भर डाला जाता।''9

शोषित पात्र के रूप में भारतीय नारी को नागार्जुन ने अपने उपन्यासों में चित्रित किया है। समाजवादी चेतना ही उनके नारी पात्रों की विशेषता है। नारी पात्रों में गौरी (रतिनाथ की चाची), बिसेसरी (नई पौध), मधुरी (वरुण के बेटे), माया (दु:खमोचन), निर्मला (कुंभीपाक) और उगनी (उग्रतारा) प्रमुख है। इन उपन्यासों में भारतीय समाज में अपमानित, तिरस्कृत और यातनापूर्ण जीवन जीने वाली नारी के वैधव्य-जीवन का यथार्थ चित्रण किया गया है। स्वयं नागार्जुन बिहार के निम्न मध्यवर्गीय मैथिल समाज में जन्म लेकर प्रत्यक्ष द्रष्टा के रूप में विधवाओं के तिरस्कृत एवं यातनापूर्ण जीवन के सहभागी रहे हैं। 'रतिनाथ की चाची' की गौरी भारतीय विधवा नारी वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाली स्त्री है। 'नई पौध' के खोंखा पंडित अपनी नातिन बिसेसरी को साठ साल के चतुरानन चौधरी से ब्याहने की बात करते हैं। रमेसरी को छोड़कर बाकी छहों बेटियाँ उन्होंने बेच डाली थी। ''महेसरी से उन्हें 1100 रूपये मिले थे। भुवनेसरी से 800 रु. मिले थे। गुनेसरी से 700 रु. मिले थे। गुंजेसरी से 1000 रु. मिले थे। बानेसरी से 700 रु. और धनेसरी से 900 रु. मिले थे। और अब बिसेसरी का नंबर था, फसल तैयार खड़ी थी, कटने भर का विलंब था।''10 खोंखा पंडित के सामने प्रश्न लड़की के जीवन का नहीं, धन, दौलत और ऐश्वर्य का था। 'बिसेसरी' एक साहसी नारी पात्र है जो धैर्य, हिम्मत और साहस के बल पर अपनी पसंद का जीवनसाथी प्राप्त करती है और अपना बिगड़ने वाला भविष्य बना लेती है। 'मधुरी' का चरित्र भी बहादुर लड़की का है। ''नारी के प्रति नागार्जुन का दृष्टिकोण संगत और स्वस्थ प्रतीत होता है और इन नारी पात्रों का विकास जीवन की यथार्थ भाव-भूमि पर हुआ है। ये नारी पात्र अपनी असीम करुणा से पाठकों में व्यापक संवेदना उत्पन्न करते हैं। इन चरित्रों की एक विशेषता यह है कि उपन्यासों के अंत तक आते-आते रूढ़िवादी समाज में जन्मे और पले होने पर भी परंपरागत रूढ़ियों, कुरीतियों और अंध विश्वासों के प्रति विद्रोही हो उठते हैं।''11

समग्रतः नागार्जुन ने अपने उपन्यासों में अपनी यथार्थ दृष्टि के बल पर दलित, शोषित-जन के सच्चे हितैषी के रूप में अभिव्यक्ति दी है। उनकी लेखनी से संपूर्ण मिथिलांचल का चित्रण हुआ है। नागार्जुन ने अपने उपन्यासों में सामाजिक सत्य का उद्घाटन किया है। अपनी रचनाओं के माध्यम से उन्होंने देश की कुरीतियों, छुआछूत, ऊँच-नीच के भेदभाव, जात-पात, अंधविश्वास आदि को मिटाने का प्रयास किया है। उन्होंने जन-साधारण की भाषा-शैली में अपने उपन्यासों का प्रणयन किया जिसके कारण यह और भी अधिक लोकप्रिय हो सका। समाज के विभिन्न समस्याओं की ओर उन्होंने लोगों का ध्यान आकृष्ट कराया। अपनी लोकप्रिय उपन्यासों के कारण नागार्जुन भारतीय जनमानस के हृदय में रच बस गए।

संदर्भ :

1. नागार्जुन : मेरे बाबूजी, शोभाकांत, वाणी प्रकाशन, द्वितीय संस्करण - 2011, पृ.-17

2. आलोचना, डॉ. नामवर सिंह, अंक - 56 - 57, पृ. - 2

3. बाबा बटेसरनाथ, नागार्जुन रचनावली - 4, सं. - शोभाकांत, राजकमल प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2003, पृ.- 404

4. बलचनमा, नागार्जुन रचनावली - 4, सं. - शोभाकांत, राजकमल प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2003, पृ. - 130

5. नागार्जुन का उपन्यास साहित्य : समसामयिक संदर्भ - डॉ. सुरेंद्र कुमार यादव, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण - 2001, पृ.-19

6. उपरोक्त, पृ.-143

7. बाबा बटेसरनाथ, नागार्जुन रचनावली - 4, सं. - शोभाकांत, राजकमल प्रकाशन, प्रथम संस्करण - 2003, पृ. - 391

8. बलचनमा, नागार्जुन रचनावली - 4, पृ. - 128

9. बाबा बटेसरनाथ, पृ. -377

10. नई पौध - पृ. - 255

11.

नागार्जुन का उपन्यास साहित्य : समसामयिक संदर्भ, डॉ. सुरेंद्र कुमार यादव, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण - 2001, पृ. - 164


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